कोई भी संविधान कितना अच्छा क्यों ना हो वह अंतत: बुरा होगा अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग बुरे हैं और संविधान कितना भी बुरा क्यों ना हो उससे अच्छा संविधान नहीं होगा अगर उसे इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे हैं। ये शब्द है डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के संविधान सभा में दिए गए अंतिम भाषण के। डॉ आंबेडकर जिन्हें भारत के संविधान निर्माता और शिल्पकार माना जाता है। 14 अप्रैल 1891 को जन्मे डॉ आंबेडकर को 29 अगस्त 1947 को संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। दो साल 11 महीने और 18 दिन की कड़ी मेहनत के बाद 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के द्वारा संविधान को अपनाया गया।
आज डॉ अंबेडकर जी की जयंती के मौके पर और आजादी के अमृत महोत्सव के समय में संविधान के आदर्शों की बात जरूरी है। क्या जिन आदर्शों पर इस संविधान को बनाया गया क्या आज की सरकारें उन आदर्शों पर चल रही हैं? संविधान की प्रस्तावना में संप्रभुता,समाजवाद ,धर्मनिरपेक्षता जैसे आदर्शों की बात की गई हैं। क्या आजादी के 75 वर्षों में हम भारत को इन आदर्शों के अनुरूप बना पाए? बात करें धर्मनिरपेक्षता की तो हाल की घटनाएं जैसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में खाने को लेकर उठा विवाद, नागरिकता संशोधन जैसे अधिनियम इस बात की गवाही नहीं देते। बात समाजवाद की करे तो इसका विकल्प नवउदार पूंजीवाद धीरे-धीरे उभर कर सामने आ रहा है।
डॉ आंबेडकर जी कहते थे कि संविधान पर अमल करना केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका जैसे राज्य (सरकार) के अंगो का प्रावधान कर सकता है। उन अंगों का संचालन लोगों और राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।
राज्य के तीनों अंगो बात करें तो माना जाता हैं कि किसी भी लोकतांत्रिक देश की सफलता के लिए उस देश की संवैधानिक संस्थाओं पर विश्वास और सही सूचनाएं सरकार द्वारा लोगों को दिया जाना जरूरी होता हैं। आज के समय में संवैधानिक संस्थाओं से लोगों का विश्वास कम होता जा रहा हैं। सूचना का माध्यम कहे जाने वाले और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माने जाने वाले मीडिया की छवि धूमिल होती नजर आ रही है।
जरूरी है 2047 में जब हम आजादी का अमृत काल मना कर सौ वर्ष पूरे कर रहे हो तब जिस भारत के सपने देश के संविधान निर्माता डॉ आंबेडकर जी ने संविधान के माध्यम से देखें यह वही भारत हो ।
रोहित
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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